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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अतीन्द्रिय क्षमताओं की पृष्ठभूमि

अतीन्द्रिय क्षमताओं की पृष्ठभूमि

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : श्रीवेदमाता गायत्री ट्रस्ट शान्तिकुज प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4105
आईएसबीएन :000

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गुरुदेव की वचन...

कल्पनाएँ सजीव सक्रिय


मानवी चेतना का मोटा उपयोग वस्तुओं के उपभोग और प्राणियों के साथ व्यवहार कौशल के रूप में ही प्रतीत होता है, पर
जैसे-जैसे रहस्मय पर्दे उठते जा रहे हैं वैसे-वैसे सिद्ध होता जा रहा है कि इस स्थूल के भीतर कोई दिव्य चेतना लोक जगमगा रहा है और उसमें प्रवेश करके बहुमूल्य रत्न-राशि ढूँढ लाने की क्षमता भी मनुष्य में विद्यमान है। मन को साधारणतः इच्छा, ज्ञान और क्रिया में संलग्न रखने वाली चेतना के रूप में जाना जाता रहा है, पर अब उसकी अतींद्रिय चेतना पर विश्वास किया जाने लगा है। ऐसे अगणित प्रमाण सामने आ रहे हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि हाड़-मांस का सोचने, बोलने वाला पिंड जो कर सकता है, उससे कहीं अधिक परिधि मानवी चेतना की है। उसमें अतिमानवी असाधारण शक्तियाँ भी सन्निहित हैं।

अमेरिका के टोरंटो टेलीविजन स्टूडियो में एक व्यक्ति की कल्पनाएँ मूर्तिमान् रूप में किस प्रकार दिखाई देती हैं ? इसके प्रामाणिक चित्र लिए गये। ४६ वर्षीय ट्रक ड्राइवर थियोडर सेरिक्षोस का दावा था कि, उसके विचार इतने स्पष्ट होते हैं कि उन्हें शायद चित्र रूप में भी उतारा जा सके। उपरोक्त प्रयोगशाला में उसे प्रस्तुत किया गया। इसके लिए कंपनी में बना सीलबंद पोलारायड कैमरा खरीदा गया और फिल्म बनाने वाली कंपनी से सीधे ही उसमें फिल्म भराई गई। यह कैमरा ऐसा है, जो अपने आप ही एक मिनट में तैयार फोटो हाथ में रख देता है। यह प्रयोग उपकरण इसलिए ऐसी सावधानी के साथ प्रयुक्त किए गए कि, किसी को यह संदेह न रहे कि किसी व्यक्ति विशेष की ख्याति के लिए कोई बाजीगरी की गई है। उपकरणों की और फोटोग्राफी की शुद्धता के लिए कई साक्षी भी साथ रखे गये।

थियोडर ने जो-जो कल्पनाएँ की, मस्तिष्क के सामने लगे कैमरे ने ठीक उन्हीं चित्रों को उतार दिया। इस विशिष्टता की चर्चा जब अधिक हुई तो कोलरेडो विश्वविद्यालय ने उस व्यक्ति के संबंध में गहराई तक जाँच करने का निश्चय किया और इसके लिए डॉ० आइजनबर्ग के नेतृत्व में एक विशेष विभाग ही बना दिया जो न केवल इस चमत्कार की, वरन् उसके कारणों की भी जाँच करे। जाँच दो वर्ष तक चली और उसका निष्कर्ष इतना ही निकला कि, उस व्यक्ति में निश्चित ही यह अद्भुत शक्ति है। उसके कारण नहीं जाने जा सके, केवल कुछ संभावनाओं की चर्चा की गई है।

कल्पना, विचार, भावनाएँ और संकल्प कोई हवाई उड़ानें या अवास्तविक बातें ही नहीं है, बल्कि वे भी स्थूल क्रियाओं की तरह प्रभावशाली होती हैं। इनकी सामर्थ्य स्थूल क्रियाओं से अधिक समर्थ होती हैं। प्राचीन काल में ऋषियों-महर्षियों ने इस शक्ति का महत्त्व समझकर उनका उपयोग सरलतापूर्वक करने की विधि खोज ली थी।

विचार संचालन, टेलीपैथी के अंतर्गत बिना यंत्रों, संकेतों या इंद्रियों की सहायता के दूरस्थ व्यक्तियों द्वारा परस्पर विचारविनिमय की प्रक्रिया इसी शक्ति के अंतर्गत आती है। अतींद्रिय दृष्टि में बिना आँखों की सहायता के दृश्यों को देखा जाना सम्मिलित है। पूर्व ज्ञान से बीत हुई घटनाओं को जानना और भविष्य ज्ञान में भावी संभावनाओं का परिचय प्राप्त करने की बात है। स्वप्नों में व्यक्ति की स्थिति अथवा अविज्ञात घटना क्रमों के भूतकालीन अथवा भावी संकेत समझे जाते हैं।

साइकोकाइनेसिस के अंतर्गत मस्तिष्क का वस्तुओं पर पड़ने वाला प्रभाव आँका जाता है। लूथर बरबेन्क ने पौधे, फूल, कीड़े, पक्षी और पशुओं पर अपनी भाव-संवेदनाओं के भिन्न-भिन्न प्रभाव डालने में जो सफलता प्राप्त की है, उससे शोधकर्ताओं का उत्साह बहुत बढ़ा और वे न केवल प्राणियों पर वरन् पदार्थों पर भी विचार शक्ति के आश्चर्यजनक प्रभावों को प्रमाणित कर सकने में सफल हुए।

मैस्मरेजम के आविष्कर्ता डॉ० मैस्मर ने लिखा है- "मन को यदि संसार के पदार्थों और तुच्छ इंद्रिय भोगों से उठाकर ऊर्ध्वगामी बनाया जा सके, तो वह ऐसी विलक्षण शक्ति और सामर्यों से परिपूर्ण हो सकता है, जो साधारण लोगों के लिए चमत्कार सी जान पड़े। मन आकाश (स्पेस) में भ्रमण कर सकता है और उन घटनाओं को ग्रहण करने में समर्थ हो सकता है, जिन्हें हमारी ज्ञानेंद्रियाँ ग्रहण न कर सकें और हमारा तर्क जिन्हें व्यक्त करने में असमर्थ हो।"

अमेरिका के प्रसिद्ध विद्वान् डॉ० जे० बी० राइन ने भी उक्त तथ्य की बाद में विस्तृत खोज की और पाया कि विचार, चिंतन और किसी भी अभ्यास द्वारा यदि मन को विचारणाओं के सामान्य धरातल से ऊपर उठाकर आकाश में घुमाया जा सके तो वह भूत और भविष्य की अनेक घटनाओं को बेतार के तार के संदेश की तरह प्राप्त कर सकता है। न्यू फ्रंटियर्स ऑफ माइंड' नामक पुस्तक में उन्होंने ऐसी अनेक घटनाओं का विवरण भी दिया है, जो उक्त कथन की सत्यता प्रतिपादित करती हैं। यह एक विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है, अंधविश्वास नहीं।

इस तथ्य को समझने से पूर्व मन की शक्ति के बारे में जान लेना आवश्यक होगा। जिस प्रकार ध्वनि-तरंगों को पकड़ने के लिए रेडियो में एक विशेष प्रकार का क्रिस्टल फिट किया जाता है, शरीर, अध्यात्म का भी एक क्रिस्टल है और वह मन है। विज्ञान जानने वालों को पता है, ईथर नामक तत्व सारे ब्रह्मांड में व्याप्त है। हम जो भी बोलते हैं, उनका भी एक प्रवाह है, पर वह बहुत हल्का होता है। किंतु जब अपने शब्दों को विद्युत् परमाणुओं में बदल देते हैं, तो वह शब्द-तरंगें भी विद्युत् शक्ति के अनुरूप ही प्रचंड रूप धारण कर लेती है और बड़े वेग से चारों तरफ फैलने लगती हैं। वह शब्द-तरंगें संपूर्ण आकाश में भरी रहती हैं, रेडियो उन लहरों को पकड़ता है और विद्युत् परमाणुओं को रोककर केवल शब्द-तरंगों को लाउडस्पीकर तक जाने देता है, जिससे दूर बैठे व्यक्ति की ध्वनि वहाँ सुनाई देने लगती है। शब्द को तरंग और तरंगों को फिर शब्द में बदलने का काम विद्युत करती है, उसी प्रकार आध्यात्मिक चिकित्सा और विचार प्रेषण (टेलीपैथी) का कार्य मन करता है।

यों मन शरीर में एक पृथक सत्ता की भाँति दिखाई देता है, पर वैज्ञानिक जानते हैं कि शरीर के प्रत्येक कोष में एक पृथक् मन होता है। कोषों के मनों का समुदाय ही अवयव स्थित मन का निर्माण करता है। प्रत्येक अवयव का क्रिया क्षेत्र अलग-अलग है, पर वह सब मन अवयव के अधीन हैं। मान लीजिए, गुदा के समीपवर्ती जीवकोष (सेल्स) अपनी तरह के रासायनिक पदार्थ ढूँढते और ग्रहण करते हैं। उनकी उत्तेजना काम-वासना को भड़काने का काम करती है। किंतु अवयव मन नहीं चाहता कि, इन गुदास्थित जीवकोषों की इच्छा को पूरा किया जाए अन्यथा वह काम-वासना पर नियंत्रण कर लेगा। इसी प्रकार शरीर के हर अंग के मन अपनी-अपनी इच्छाएँ प्रकट करते हैं, पर अवयव मन उन सबको काटता, छाँटता रहता है। जो इच्छा पूर्ण नहीं होने को होती है, उसे दबाता रहता है और दूसरे को सहयोग देकर वैसा काम करने लगता है।

इस बात को और ठीक तरह से समझने के लिए शरीर रचना का थोड़ा ज्ञान होना आवश्यक है। यह भौतिक शरीर सूक्ष्म जीवकोषों से बना है, प्रत्येक जीवकोष प्रोटीन की एक अंडाकार दीवार से घिरा रहता है। उस कोष के अंदर सैकड़ों प्रकार के यौगिक और मिश्रण पाये जाते हैं। नाइट्रोजन और न्यूक्लियक अम्लों का सबसे बड़ा समूह इस सेल के अंदर होता है। फास्फोरस, चर्बियाँ (वसाएँ) और शर्कराएँ भी उसमें मिलती हैं, साथ ही बीसियों अन्य कार्बनिक पदार्थ सूक्ष्म मात्राओं में पाये जाते हैं, जैसे विटामिन और हार्मोन। उनमें बहुत से अकार्बनिक लवण भी होते हैं। यानी प्रोटीन, न्यूक्लियक अम्ल, वसाएँ, शर्कराएँ और लवण ये सांसारिक पदार्थ जिन्हें रसायनज्ञ एक जीवित कोशिका में पाता है, निश्चय ही ऐसे पदार्थ नहीं हैं, जिससे विचारों का निर्माण भी होता है, फिर भी ऐसे ही पदार्थों के ऊपर उस असंभव विचार का भवन निर्मित होता है, जिसे हम जीवन कहते हैं। अतः उस जीवन की विचित्रता और बढ़ जाती है, यह मान्यता आधुनिक विज्ञानवेत्ताओं की है।

यह जीवकोषों के मन ही मिलकर अवयव मन का निर्माण करते हैं, इसलिए मन को एक वस्तु न मानकर अध्यात्म-शास्त्र में उसे 'मनोमय कोश' कहा गया है। एक अवस्था ऐसी होती है, जब शरीर के सब मन उसके अधीन काम करते हैं, जब यह अनुशासन स्थापित हो जाता है, तो मन की क्षमता बड़ी प्रचंड हो जाती है और उसे जिस तरफ लगा दिया जाए, उसी ओर वह तूफान की सी तीव्र हलचल पैदा कर देता है।

इन सूक्ष्म जीवों के मन निःसंदेह प्रत्युत्पन्नमति पटल (संस्कार जन्य मन) के अधीन हैं और बुद्धि की आज्ञाओं को भी मानते हैं। इन जीवों के मन में अपने विशेष कार्य के लिए विचित्र योग्यता रहती है। रक्त के आवश्यक सार का शोषण, अनावश्यक का त्याग इनकी बुद्धि का प्रमाण है। यह क्रिया शरीर के हर अंग में होती है, जो जीवकोष संस्थान द्वारा सक्रिय होता है, वह ज्यादा बलवान् रहता है और अपने पास-पड़ोस वाले जीवकोषों की शक्ति को मंद कर देता है। गुदा वाले जीवकोष जो काम-वासना में रुचि रखते हैं, वह सक्रिय होते हैं, तो आमाशय के जीवकोषों की शक्ति का भी अपहरण कर लेते हैं. और इस तरह काम-वासना की प्रत्येक पूर्ति के साथ आमाशय की शक्ति घटती जाती है और वह व्यक्ति पेट का मरीज हो जाता है। जीवकोषों का अनुशासित न होना ही शरीर की कमजोरियों का कारण बनता है। जो भी हो, यह सत्य है कि, पाचन का आसवत्व, घावों का पूरना, आवश्यकतानुसार दूसरे स्थानों पर दौड़ जाना, अन्य बहुत से कार्य कोषगत जीवन के ही मानसिक कार्य हैं। उन्हें विशृंखलित रहने देने से उनका सम्राट मस्तिष्क में रहने वाला मन भी कमजोर और अस्तव्यस्त हो जाता है; किंतु जब संपूर्ण शरीर के मन उसके अनुशासन में आ जाते हैं, तो शक्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है।

केवल कोमल स्नायु, पेशियाँ, झिल्लियाँ आदि ही नहीं, हड्डियाँ, दाँत, नाखून आदि कठोर पदार्थ भी सूक्ष्म जीवों के योग से बने होते हैं, अपने कार्यों के अनुसार इनकी आकृतियाँ अलग-अलग होती हैं, पर इनमें भी स्वतंत्र और प्रत्युत्पन्न मन के अधीन काम करने की दोहरी क्षमता होती है। अर्थात् सब जीवकोष स्थानीय कार्य भी करते रहते हैं और संगठित कार्य भी। जिस प्रकार एक गाँव के सब लोग अपना अलग-अलग काम करते रहते हैं, अपना खेत जोतना, अपना काटना, अपने लिए अलग पकाना, अपने ही परिवार के साथ बसना, अपनी बनाई कुटिया में रहना आदि, केवल अपने तक ही सीमित रहते हैं, पर आवश्यकता आ
जाती है, तो सब लोग इकट्ठे होकर कोई सार्वजनिक कुआँ तालाब आदि भी खोदते हैं। एक आदमी दूसरे की सहायता करता है। ठीक वैसे ही जीवकोषों के मन और प्रत्युत्पन्न मन के भी दो क्षेत्र हैं और दोनों अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। कुछ कोष ऐसे भी होते हैं, जिन्हें शरीर में केवल सुरक्षा की दृष्टि से तैनात किया है, वे गंदगी को दूर करने, कचरा न जमा होने देने की चौकीदारी भी करते हैं और कोई रोग का कीटाणु (वायरस) शरीर में आ जाए, तो उससे युद्ध करने का काम भी वे कोष करते हैं। इस तरह शरीर के मन तो अपनी-अपनी व्यक्तिगत ड्यूटी पूरी करते हैं, दूसरे बाह्य जगत् से संपर्क बनाते हैं, दोनों अलग-अलग काम करते रहते हैं।

शरीर के अंदर इस तरह जीवकोषों का मेला लगा हुआ है। अनुमानतः केवल लाल रंग के कोषों की संख्या कम से कम ७५,००,००,००,000 हैं, इनका काम फेफड़ों से ऑक्सीजन चूसना, धमनियों और वाहिनियों के द्वारा सारे शरीर में बाँटना होता है। यह जीवकोष अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि यह जगत से भी शक्ति चूसने के वैज्ञानिक कार्य को पूरा करते हैं। इसलिए मनुष्य शारीरिक शक्ति की कमी के बावजूद भी बहुत दिन तक जिंदा रहता है; क्योंकि यह विश्वव्यापी प्राण सत्ता से शरीर का संबंध बनाये रहते हैं।

प्रत्युत्पन्न मन जब एकाग्र और संकल्पशील होता है, तो सभी कोष स्थित मन जो विभिन्न गुणों और स्थानों की सुरक्षा वाले होते हैं, उसी के अधीन होकर काम करने में लग जाते हैं, फिर उस संग्रहीत शक्ति से किसी भी स्थान के जीवकोषों को किसी दूसरे के शरीर में पहुँचाकर उस व्यक्ति की किसी रोग से रक्षा की जा सकती है। सुनने, समझने वाले मनों में हलचल पैदा करके उन्हें संदेश दिया जा सकता है, किसी को पीड़ित या परेशान भी किया जा सकता है।

जीव-विज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान् रिचीकाल्डर ने इस तथ्य का प्रतिपादन इस तरह किया है इलेक्ट्रॉन हमारा दास है, क्योंकि वे मानवीय प्रतिक्रियाओं में अधिक तेजी से चलते हैं। ये मानवीय नेत्र से भी अधिक देख सकते हैं, मानवीय स्पर्श से अधिक हर्ष अनुभव कर सकते हैं। मानवीय कान से अधिक सुन सकते हैं, मस्तिष्क की अपेक्षा शीघ्र और ठीक गिनती कर सकते हैं। हमारे सामने दूर आस्वादन (टेलेगस्टेशन), दूर श्रवण (टेलेआडीशन) दूर घ्राण (टेले आल्फेक्शन) सुगंधित पदार्थ तथा बोलते चित्र भी हैं, वह इन्हीं इलेक्ट्रॉनों का काम है। नियंत्रण मोटरों (सर्वोमीटर) के द्वारा इलेक्ट्रॉन किसी रोलिंग मिल के हजारों टन इस्पात को पाव भर वजन की तरह उठा देता है, जबकि वह पदार्थगत मन है। इसके सहारे यदि मानव के जीवकोषों में अवस्थित मन (इलेक्ट्रॉन्स) की शक्ति का अनुमान करें, तो वहाँ तक संभवतः हमारी बुद्धि न पहुँचे, पर अब इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकता कि ऐसी कोई विद्या हो सकती है, जब एक शरीर अपनी विशेष शक्ति या संदेशों किसी और शरीरधारी का दे सके।

हम जानते हैं कि प्रकाश एक शक्ति है, पर वह अपने मौलिक रूप में पदार्थ भी है, क्योंकि वह टुकड़ों में विभक्त हो जाता है। यह प्रकाश-परमाणु 'फोटो-सेल्स' कहलाते हैं। उनमें भी इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूक्लियस की रचना होती है। अर्थात् प्रकाश से भी सूक्ष्म सत्तायें इस संसार में हैं, यह मानना पड़ता है।

वस्तुएँ हम प्रकाश की सहायता से देख सकते हैं, किंतु साधारण प्रकाश कणों की सहायता से हम शरीर के कोष सल) को देखना चाहें, तो वे इतने सूक्ष्म हैं कि हम उन्हें देख हीं सकते। इलेक्ट्रॉनों को जब ५०,००० बोल्ट आवेश पर सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) में भेजा जाता है, तो उनको तरंग दैर्ध्य श्वेत प्रकाश कणों की तुलना में १/१00000 भाग सूक्ष्म होती है, तब वह हाइड्रोजन के परमाणु का जितना व्यास होता है, उसके भी ४२४ वें हिस्से छोटे परमाणु में भी प्रवेश करके वहाँ की गतिविधियाँ दिखा सकती है। उदाहरण के लिए यदि मनुष्य की आँख एक इंच के घेरे को देख सकती है, तो वह उससे भी ५०० अंश कम को प्रकाश-सूक्ष्मदर्शी और १०,000 अंश छोटे भाग को इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी देख सकती है। इसी से अनुमान लगा सकते हैं कि, मनुष्य शरीर के कोश (सेल्स) का चेतन भाग कितना सूक्ष्म होना चाहिये ? इस तरह के सूक्ष्मदर्शी से जब कोश का निरीक्षण किया गया, तो उसमें भी एक प्रकार टिमटिमाता हुआ प्रकाश दिखाई दिया। चेतना या महत्तत्त्व इस प्रकार प्रकाश की ही अति सूक्ष्म स्फुरणा है, यह विज्ञान भी मानता है।

मास्को के जीव वैज्ञानिक प्रो० तारासोव ने यह देखकर ही बताया था कि, मनुष्य शरीर का प्रत्येक सेल एक टिमटिमाते हुए दीपक की तरह है। कुल शरीर ब्रह्मांड के नक्षत्रों की तरह-तो यह सूक्ष्मतम चेतना ही उसमें जीवन है।

यह जीवन तत्त्व शरीर के प्रत्येक अंग में छिटका हुआ है, पर उसका एक नियत स्थान भी है, जहाँ से वह प्रभासित होता है। हम देखते हैं कि आत्मा नामक कोई वस्तु शरीर में है, तो उसे प्रकाश अणुओं के रूप में पाया जाना चाहिए, पर जैसे सूर्य सारे ब्रह्मांड में बिखर गया है, यह चेतना भी सारे शरीर में संव्याप्त है और विचार तथा भावनाओं के रूप में निःसृत होता रहता है। इस तरह प्रत्येक व्यक्ति के साथ उसके विचारों की तरंग दैर्ध्य चलती रहती है। जो अधिक स्थूल स्वभाव और आचार-विचार के व्यक्ति होते हैं, उनका यह तरंग दैर्ध्य बहुत सीमित और दुर्गंधित होता है, इसलिए बुरे लोग अपने पास वाले को भी प्रभावित नहीं कर पाते, जबकि विचारशील लोग, विशेष प्राणवान लोग सभा मंडप में बैठे हजारों लोगों को अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति भाषणों द्वारा इतनी शक्ति और प्रेरणा दे सकते हैं कि सैकड़ों लोग थोड़ी ही देर में अपने विचार पलटकर रख देते हैं। इस तरह के प्राणवान् व्यक्ति आदि काल से ही लोगों की जीवन दिशाएँ बदलते और युगों में परिवर्तन लाते आए हैं।

हमारा शरीर एक प्रकार से आकाश है। यदि त्वचा के आवरण से बाँधकर उसे एक विशेष गुरुत्वाकर्षण शक्ति द्वारा पृथ्वी से बाँध नहीं दिया गया होता, तो हम आकाश में कहीं विचरण कर रहे होते। सूक्ष्म रूप से हमारी चेतना विचार और संकल्पों के रूप में आकाश तत्त्व में तरंगित होती रहती है। भारतीय योगियों ने उस चेतना को विभिन्न प्राणायाम, धारणा, ध्यान, समाधि आदि योग क्रियाओं द्वारा मन के रूप में नियंत्रित किया गया था। आज्ञा चक्र नामक स्थान, जो माथे में दोनों भौहों के बीच पाया जाता है, ध्यान द्वारा देखा गया तो उस बिखरी हुई ज्योति के एकाकार दर्शन ऐसे ही हुए जैसे हजार दिशाओं में बिखरे होने पर भी सूर्य का एक पुंजीभूत रूप। वह उन बिखरे हुए अस्त-व्यस्त कणों की तुलना में जो कि सारे सौर मंडल की प्रकृति का निर्धारण करते हैं, कहीं अधिक ऊर्जा (प्रकाश, विद्युत्, ताप) से संपन्न होता है। ऐसे ही मन जब शरीर के सब कोषों की ऊर्जा के रूप में नियंत्रित हो जाता है, तो उसकी शक्ति, सामर्थ्य और विभेदन क्षमता का कोई पारावार नहीं रहता है। इस तरह का मन ही सर्वत्र गमनशील, सर्वदर्शी और सर्वव्यापी होता है। वही क्षणभर कहीं का कहीं पहुँचकर बेतार के तार की तरह संदेश पहुंचाता रहता है।

ऊर्जा का प्रकाश में बदलना एक अत्यंत जटिल प्रणाली है, पर वैज्ञानिक यह जान चुके हैं कि जब यह ऊर्जा किसी वस्तु में प्रवेश करती है, तो उसके परमाणु उत्तेजित हो उठते हैं। फिर थोड़ा शांत होकर जब वे अपने मूल स्थान को लौटते हैं, तो उस सोखी हुई ऊर्जा को प्रकाश में बदल देते हैं। इस क्रिया को 'संदीप्ति' कहते हैं। यह गुण संसार के सभी प्राणियों में पाया जाता है, हम उसे जानते नहीं; पर यह वैज्ञानिकों को पता है कि मनुष्य जो कुछ सोचता है, वह कितना ही छुपाए, छुप नहीं सकता। वह इसी प्रकार सूक्ष्म प्रकाश तरंगों के रूप में बाहर निकलता रहता है, यदि हम उन तरंगों से भी सूक्ष्म आत्म-चेतना द्वारा उन तरंगों में प्रवेश पा सकें, जैसा कि ऊपर के प्रयोग में बताया गया है तो हम आसानी से समझ सकते हैं कि अमुक व्यक्ति क्या सोच रहा है ? भविष्य की इसकी योजनाएँ क्या हैं ? आदि-आदि। पर यह सब तभी संभव हैं, जब नितांत शुद्ध रूप में हम मन पर नियंत्रण कर चुके हों।

पहले लोगों का विश्वास था कि प्रकाश छोड़ने का यह गुण (संदीप्ति) केवल जड़ वस्तुओं का ही गुण है, पर अब यह स्पष्ट हो गया कि यह गुण जीवधारियों में भी पाया जाता है। 'अणु और आत्मा' पुस्तक में डॉ० जे० सी० ट्रस्ट ने इसी विज्ञान की व्याख्या की और इस आत्म विज्ञान के पहलू को प्रकाश में लाकर उन्होंने वैज्ञानिकों को शोध की नई दिशा भी दी है। हम उस बात को सामान्यतः फुगी, मधुरिका, जुगनू आदि जीवों से समझ सकते हैं। जुगनू की तरह कई जीव समुद्र में भी पाये जाते हैं, जो अपने शरीर में 'एंजाइमी ऑक्सीकरण की प्रक्रिया में मुक्त होने वाली ऊर्जा को प्रकाश में बदल देते हैं। यही प्रकाश इनमें टिमटिमाता दिखाई देता है। मादा जुगनू जब कभी कामोत्तेजित होती है तो उसके शरीर में एक जैवरासायनिक क्रिया उत्पन्न होती है, जिसमें रासायनिक द्रव्य लूसी फेरस एंजाइम, लूसीफिरिन और ए० टी० पी० कंपाउंड भाग लेते हैं। इससे एक विशेष प्रकार की रासायनिक ऊर्जा-तरंग उत्पन्न होती है, अर्थात् उस विद्युत्-तरंग में उस मादा की गंध भी रहती है, इसीलिए उस विशेष सिग्नल को नर जुगनू पहचान लेता है और मादा के पास जा पहुँचता है।

एंजाइम एक प्रकार के सूक्ष्म नाड़ी तंतु हैं, जो साँस द्वारा प्राप्त ऑक्सीजन को सारे शरीर में पहुँचाकर जीवन शक्ति बनाए रखते हैं। मानसिक शक्तियों का शुद्ध परिष्कार भी अधिकांश प्राणायाम के अभ्यास पर ही निर्भर है, उसमें वायु में पाए गए प्राण-तत्त्व (प्राकृतिक ऊर्जा) के द्वारा मन को प्रखर और शुद्ध बनाया जाता है।

डॉ० हर्टलाइन ने सन् १६६७ में पहली बार नेत्र कोशिकाओं में उत्पन्न विद्युत् आवेगों को इलेक्ट्रॉनिक युक्तियों से रेकार्ड करके बताया कि, प्रत्येक कोष में उस बिंब की सारी बारीकियों अर्थात् रंग, आकार, उभरी-धंसी रेखाएँ आदि निहित होती हैं। प्रत्येक कोष एक सेकंड के भी करोड़वें हिस्से में उस प्रतिबिंब के अगले कोष को पार कर देता है और इस प्रकार सामने दिखाई देने वाले बिंब की सूचना प्रकाश की गति के हिसाब से मस्तिष्क के दृश्य-स्थान (ऑप्टिक सेंटर) में पहुँच जाती है।

इस दृश्य को मन के द्वारा प्रकृति के प्राण-विद्युत् प्रवाह में घोलकर वह दृश्य जो हमारे मस्तिष्क में है—किसी भी दूरवर्ती व्यक्ति को भेज सकते हैं। उपग्रह-संचार पद्धति के विकास ने इस मान्यता को भी पुष्ट कर दिया है, अब लंदन में होने वाली शल्य-चिकित्सा को हजारों मील दूर के अस्पतालों में भी देखा जा सकेगा। अभी रायल फ्री हॉस्पिटल के सर्जनों द्वारा संपर्क परीक्षणों को मैनचेस्टर और बर्मिंघम स्थित मेडिकल स्कूल के विद्यार्थियों ने देखा। इसमें भारतीय विद्यार्थियों सहित २००० विद्यार्थी सम्मिलित थे। इस प्रणाली से किसी भी दृश्य को फोटो-सेल्स के मध्यम से आठ संचार उपग्रह (टेलस्टार)-जो पृथ्वी की परिक्रमा लगा रहा है, को भेजा। संचार उपग्रह ने उसे एक नियत फ्रिक्वेंसी पर सारे संसार में फैला दिया। इस तरह एक ही दृश्य को सारे संसार में पहुंचाना तक संभव है। दूरवर्ती दृश्यों को देखने के लिए प्रकाश परमाणुओं पर पड़े बिंबों को ऊर्जा की एक धारा में बहाकर लाना या ले जाना होता है, जिसे नियंत्रित मन से पूरा किया जा सकता है। हम किसी के मन में अचानक संदेश और दृश्य भेज ही नहीं, सुन और देख भी लेते हैं। वह सब इन प्रकाश अणुओं और उसमें व्याप्त चेतना की ही करामात होती है।

सन् १९२७ में डॉ० किलिंटन, लिस्टर एच० जरमर तथा जे० डेवीसन ने बैल टेलीफोन लैबोरेटरी न्यूयार्क में किए अनुसंधान के आधार पर बताया कि, इलेक्ट्रॉन द्वैत प्रकृति तत्त्व है, अर्थात् वह एक कण की तरह भी काम करता है और लहर की तरह भी। उसकी गति ३१,०५० मील प्रति सेकंड होती है। उनकी इस खोज के आधार पर ही इन्हें नोबुल पुरस्कार भी मिला था। इलेक्ट्रॉन जिस तरह एक कण के रूप में स्थिर और गतिशील भी है, उसी प्रकार प्रकाश भी स्थिर और गतिशील है। सर आर्थर-स्टेनले एडिंगटन ने "नेचर ऑफ दि फिजिकल वर्ड" में लिखा है किप्रकाश भी छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त है। इन नाचते हुए कणों को "फोटोन्स" कहते हैं और उन्हें "फ्लोरोसेंट स्क्रीन" के प्रकाश में देखा जा सकता है। इनकी गति १८६,३०० मील प्रति सेकंड अर्थात् इलेक्ट्रॉन से भी ६ गुना अधिक होती है।

इलेक्ट्रॉन और प्रकाश यदि वे शक्ति हैं, तो पदार्थ भी हैं। कण हैं, तो लहर भी। इलेक्ट्रॉन सृष्टि के हर कण में है, पर वह
अपना उत्पादक न होकर नाभिक से बँधा है। उसी प्रकार प्रकाश ब्रह्मांड भर में कहीं भी विचरण कर सकता है, पर स्वयं अपनी उत्पादकता नहीं है। अपने जीवन के अंतिम समय आइन्स्टीन, जो कि ऋषियों के मायावाद सिद्धांत तक पहुँच गये थे, ने यह बताया था कि काल और स्थान सापेक्ष हैं और वे प्रकाश की माप पर निर्भर हैं, (रिलेटिविटी ऑफ टाइम एंड स्पेस इज विद रिफरेन्स टु यार्ड-स्टिक ऑफ लाइट)। वे अब यह सिद्ध करना चाहते थे, कि कोई एकात्म क्षेत्र (यूनीफाईड फील्ड) ऐसा है, जिसमें विद्युत् चुंबकीय बल (इलेक्ट्रोमेगनेटिक फोर्स) भी है और गुरुत्वाकर्षण भी। वह क्षेत्र इन दोनों से युक्त भी है और मुक्त भी। यह इलेक्ट्रॉन की तरह ही द्वैत गुण था और आइन्स्टीन ने उसके अस्तित्व से इनकार नहीं किया, वरन माना था कि "मस्तिष्कीय द्रव्य" (माइंड स्टफ) में वह गुण है, वह समय और पदार्थ से परे तत्त्व है, उसकी गति और अगति में कोई अंतर नहीं है, अर्थात् वह (मस्तिष्कीय द्रव्य–माइंड स्टफ) एक ही समय में कलकत्ता या बंबई में भी हो सकता है और उसी समय वह मथुरा में भी उपस्थित रह सकता है। यही वह तत्त्व है, जो प्रकाश को धारण करके उसकी गति से किसी भी वस्तु का स्थानांतरण कर सकता है। पदार्थ को शक्ति में बदलकर उसे कहीं भी सूक्ष्म अणुओं के रूप में बहाकर ले जा सकता है और उसे सेकंड से भी कम समय में बदल सकता है।

योगी और साधक द्वारा मस्तिष्क के इसी एकांत क्षेत्र पर अवस्थित होकर इलेक्ट्रॉन और प्रकाश कणों द्वारा E=MC2 के आधार पर वह शक्ति अपने भीतर से उत्पन्न करते हैं, जो किसी भी परमाणविक शक्ति से बढ़कर होती है, उसमें इलेक्ट्रॉन और प्रकाश कणों की द्वैत शक्ति ही होती है, जिससे वे स्थूल और सूक्ष्म क्रियाएँ संभव है, जो अतींद्रिय घटनाओं के रूप में प्रकट होती हैं।

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    अनुक्रम

  1. भविष्यवाणियों से सार्थक दिशा बोध
  2. भविष्यवक्ताओं की परंपरा
  3. अतींद्रिय क्षमताओं की पृष्ठभूमि व आधार
  4. कल्पनाएँ सजीव सक्रिय
  5. श्रवण और दर्शन की दिव्य शक्तियाँ
  6. अंतर्निहित विभूतियों का आभास-प्रकाश
  7. पूर्वाभास और स्वप्न
  8. पूर्वाभास-संयोग नहीं तथ्य
  9. पूर्वाभास से मार्गदर्शन
  10. भूत और भविष्य - ज्ञात और ज्ञेय
  11. सपनों के झरोखे से
  12. पूर्वाभास और अतींद्रिय दर्शन के वैज्ञानिक आधार
  13. समय फैलता व सिकुड़ता है
  14. समय और चेतना से परे

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